सत्यनारायण कथा के महत्व
सत्यनारायण कथा का श्रवण करने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यह न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि मानसिक और भौतिक सुख-शांति के लिए भी अत्यंत लाभकारी है। कुछ प्रमुख लाभइस प्रकार हैं:
समस्या का समाधान: सत्यनारायण कथा को श्रद्धा पूर्वक सुनने से जीवन की तमाम समस्याओं का समाधान होता है। कठिनाइयाँ कम होती हैं और व्यक्ति को सही दिशा मिलती है।धन-धान्य की प्राप्ति: इस कथा का नियमित रूप से वाचन करने से घर में सुख-समृद्धि का वास होता है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है और धन का आगमन होता है।
मानसिक शांति: सत्यनारायण भगवान की पूजा और कथा से मानसिक शांति मिलती है। यह तनाव और मानसिक अशांति को दूर करती है।
सच्चाई की शक्ति: सत्य बोलने और सच के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, जिससे जीवन में नैतिक और आत्मिक उन्नति होती है।
भगवान की कृपा: कथा में भगवान सत्यनारायण की कृपा की महिमा को बताया गया है, जिससे भक्तों को भगवान के आशीर्वाद से जीवन में सुख, शांति और सफलता मिलती है
सत्यनारायण कथा के महत्व
सत्यनारायण कथा का श्रवण करने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। यह न केवल धार्मिक
समस्या का समाधान: सत्यनारायण कथा को श्रद्धा पूर्वक सुनने से जीवन की
प्रथम अध्याय
एक समय की बात है — नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अठ्ठासी हजार ऋषियों ने सूतजी से प्रश्न किया,
"हे प्रभु! इस कलियुग में, जब लोग वेदविद्या से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे मनुष्यों को भगवान की भक्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है? और उनका उद्धार कैसे होगा?
कृपया ऐसा कोई तप बताइए जिससे थोड़े समय में पुण्य और मनवांछित फल प्राप्त हो।"
सर्वशास्त्रज्ञ सूतजी बोले —
"हे वैष्णवों में श्रेष्ठ! आपने प्राणियों के हित की बात पूछी है। इसलिए मैं आपको एक श्रेष्ठ व्रत की कथा सुनाता हूँ जिसे स्वयं नारदजी ने लक्ष्मीनारायणजी से पूछा था।
लक्ष्मीपति नारायणजी ने नारदजी से कहा — ध्यानपूर्वक सुनिए।"
एक बार नारदजी, दूसरों के कल्याण की इच्छा से अनेक लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आए।
यहाँ उन्होंने देखा कि मनुष्य विभिन्न योनियों में जन्म लेकर अपने कर्मों के फलस्वरूप अनेक दुःख भोग रहे हैं।
यह देखकर नारदजी सोचने लगे, "कोई ऐसा उपाय हो जिससे इन प्राणियों के दुःखों का अंत हो।"
यह विचार कर वे विष्णुलोक पहुंचे और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे।
विष्णु भगवान — जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, गले में वैजयंती माला सुशोभित थी — नारदजी की स्तुति से प्रसन्न होकर बोले —
"हे मुनिश्रेष्ठ! बताइए, किस कार्य के लिए पधारे हैं?"
नारदजी बोले —
"हे भगवन्! मृत्युलोक में मनुष्य अपने कर्मों से दुखी हैं। कृपा करके कोई सरल उपाय बताइए जिससे वे दुःखों से मुक्त हो सकें।"
भगवान विष्णु बोले —
"हे नारद! यह प्रश्न बहुत हितकारी है। सुनो —
स्वर्ग और मृत्युलोक में एक अत्यंत पुण्यदायक श्रेष्ठ व्रत है — श्री सत्यनारायण व्रत।
जो श्रद्धा और भक्ति से इस व्रत को करता है, वह मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करता है और जीवित रहते सुख भोगता है।"
नारदजी ने पूछा —
"हे प्रभो! इस व्रत का विधान क्या है? इसे किस दिन करना चाहिए? इसके करने से क्या फल मिलता है?"
श्रीहरि बोले —
"यह व्रत दुख, शोक और दरिद्रता को दूर करने वाला तथा विजय दिलाने वाला है।
इसे सायंकाल ब्राह्मणों और बंधु-बांधवों के साथ धर्मपूर्वक करना चाहिए।
भक्ति भाव से केले का फल, घी, दूध, गेहूँ का आटा (या साठी का आटा), शक्कर, गुड़ और भक्षण योग्य पदार्थों से नैवेद्य तैयार करना चाहिए।
भगवान को भोग अर्पित कर, ब्राह्मणों व बंधु-बांधवों को भोजन कराएं।
उसके बाद स्वयं भोजन करें और भजन-कीर्तन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं।
इस प्रकार सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
कलियुग में मोक्ष का यही सरल उपाय है।"
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय संपूर्ण ॥
द्वितीय अध्याय
सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं आपको बताता हूँ कि पहले किसने इस व्रत को किया था।"
काशीपुरी नगरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, जो भूख-प्यास से व्याकुल होकर भिक्षा के लिए भटकता था।
भगवान सत्यनारायण ने वृद्ध ब्राह्मण का वेश धरकर उसके पास जाकर पूछा —
"हे विप्र! आप इतने दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हैं?"
ब्राह्मण बोला —
"मैं अत्यंत निर्धन हूँ। कृपया कोई उपाय बताइए।"
वृद्ध ब्राह्मण बोले —
"श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करो। यह व्रत सभी दुखों का नाश करता है और मनवांछित फल देता है।"
इतना कहकर भगवान अंतर्धान हो गए।
ब्राह्मण ने निश्चय किया कि वह इस व्रत को अवश्य करेगा।
भिक्षा में उसी दिन उसे पर्याप्त धन मिला।
उसने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर विधिपूर्वक व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से वह निर्धन ब्राह्मण धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
सूतजी बोले —
"जो भी इस व्रत को करेगा, वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।"
ऋषियों ने फिर पूछा —
"हे मुनिवर! इसके बाद और किस-किसने इस व्रत को किया?"
सूतजी बोले —
"सुनो!"
वही ब्राह्मण जब एक बार व्रत कर रहा था, तभी एक लकड़हारा आया।
ब्राह्मण ने उसे सत्यनारायण व्रत के बारे में बताया।
लकड़हारा प्रसन्न हुआ और प्रण किया कि लकड़ी बेचकर मिले धन से वह भी व्रत करेगा।
उस दिन लकड़ियों का मूल्य चार गुना अधिक मिला।
लकड़हारे ने आवश्यक सामग्री खरीदकर बंधु-बांधवों के साथ व्रत संपन्न किया।
व्रत के प्रभाव से वह भी धन, पुत्र आदि से युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय संपूर्ण ॥
तृतीय अध्याय
सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा कहता हूँ।"
प्राचीनकाल में उल्कामुख नामक एक राजा था, जो सत्यवादी और जितेन्द्रिय था।
वह प्रतिदिन देवस्थलों पर जाता और निर्धनों को दान देता था।
भद्रशीला नदी के तट पर उसने अपनी पत्नी के साथ श्रीसत्यनारायण व्रत किया।
उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया।
व्रत को देखकर उसने राजा से पूछा —
"हे राजन! आप यह क्या कर रहे हैं?"
राजा ने बताया —
"हम पुत्रादि की प्राप्ति हेतु श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे हैं।"
साधु वैश्य ने भी व्रत का संकल्प किया और अपनी पत्नी लीलावती से कहा —
"संतान होने पर हम व्रत करेंगे।"
कालांतर में लीलावती गर्भवती हुई और एक सुंदर कन्या कलावती का जन्म हुआ।
कलावती धीरे-धीरे बड़ी हुई।
एक दिन साधु ने कन्या के विवाह हेतु योग्य वर खोजा और कन्या का विवाह कर दिया, परंतु अभी तक व्रत नहीं किया।
भगवान सत्यनारायण क्रोधित हुए।
साधु जब अपनी पुत्री-दामाद के साथ व्यापार हेतु समुद्र किनारे गया, तभी भगवान की माया से वह चोरी के झूठे आरोप में फंसा और उसे कारावास हो गया।
उधर घर में चोरों ने सारा धन चुरा लिया। साधु की पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती अत्यंत दुःखी हो गईं।
कलावती एक दिन एक ब्राह्मण के घर सत्यनारायण व्रत होते देखकर प्रसाद लाई और माता से सब कहा।
लीलावती ने भी विधिपूर्वक व्रत किया और भगवान से प्रार्थना की।
भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने चन्द्रकेतु राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि साधु और उसके दामाद को छोड़ दे और उनका धन लौटाए।
राजा ने वैसा ही किया। साधु अपने घर लौट आया।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय संपूर्ण ॥
चतुर्थ अध्याय
सूतजी बोले —
"अब आगे की कथा सुनिए।"
साधु वैश्य ने प्रसन्न होकर अपने नगर को यात्रा शुरू की।
रास्ते में श्रीसत्यनारायण भगवान ने दण्डी के वेश में उससे पूछा —
"हे साधु! तेरी नाव में क्या है?"
साधु ने उपहासपूर्वक उत्तर दिया —
"मेरी नाव में तो बेल-पत्ते हैं।"
भगवान ने कहा —
"जैसा कहा, वैसा ही हो।"
साधु ने जब नाव खोली तो उसमें वास्तव में बेल-पत्ते ही थे।
वह अत्यंत दुःखी हो गया।
दामाद ने सलाह दी कि दण्डी के पास जाकर क्षमा मांगे।
दोनों ने भगवान से क्षमा याचना की।
भगवान सत्यनारायण प्रसन्न हुए।
उन्होंने नाव को पुनः धन-रत्नों से भर दिया।
साधु वैश्य ने अपने नगर लौटकर बड़े धूमधाम से व्रत किया।
इस प्रकार भगवान की कृपा से उसे अपार सुख और मोक्ष की प्राप्ति हुई।
॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ॥
पंचम अध्याय
सूतजी बोले —
"हे ऋषियों! अब मैं श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का अंतिम अध्याय कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनिए।"
एक समय नंद ग्राम में एक निर्धन एवं धर्मपरायण राजा अंगिरस राज्य करते थे।
उन्होंने भी व्रत की महिमा सुनकर, श्रद्धा से सत्यनारायण व्रत किया।
व्रत के प्रभाव से उन्हें अपार धन, सुख और संतति की प्राप्ति हुई।
इसी प्रकार जो भी मनुष्य श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से इस व्रत को करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
जो व्रत कथा को सुनता या सुनाता है, वह जीवन में सुख, संपत्ति, पुत्र, पौत्र आदि से सम्पन्न होकर अंत में विष्णुलोक को प्राप्त होता है।
इस व्रत में विशेष ध्यान देना चाहिए कि व्रत के दिन वाणी, मन और कर्म से पवित्र रहें।
व्रत समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं, उन्हें दक्षिणा दें और फिर स्वयं भोजन करें।
इस प्रकार विधिपूर्वक सत्यनारायण व्रत करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं।
श्रीसत्यनारायण व्रत कथा को सुनने से घर में आनंद, सुख-शांति और कल्याण की वृद्धि होती है।
जो श्रद्धा से भगवान का नाम लेता है, वह संसार सागर से तर जाता है।
इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति को दीर्घायु, आरोग्य और सभी मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो हर माह पूर्णिमा को, अथवा विशेष शुभ अवसरों पर, इस व्रत को करता है, वह इस जीवन में ही स्वर्गीय सुखों का अनुभव करता है।
सूतजी बोले —
"हे महर्षियो! मैंने आप सबको श्रीसत्यनारायण व्रत कथा सुनाई।
जो भक्तिपूर्वक इस कथा का श्रवण या वाचन करता है, वह समस्त दुखों से मुक्त होकर अंत में भगवान के धाम को प्राप्त होता है।"
सर्वे जनाः सुखिनः भवन्तु।
॥ इति श्रीसत्यनारायण व्रतकथा पंचम अध्याय संपूर्ण ॥